Journey by Bus | बस की यात्रा
रक्षाबंधन के दिन मैं अपने मामा के यहाँ जा रहा था.मम्मी नहीं जा पाई थी इसलिए मुझे भेजा जा रहा था. बस पकड़नी थी. इस दिन काफी भीड़ भी होती है ये बात कौन नहीं जानता! ठूसम ठूस मची रहती हैं लोग इतनी जल्दी में रहते हैं जैसे घर में आग लगी है और ये पानी बाल्टी में भरकर उसे बुझाने जा रहें हैं.
ये घटना तब की है जब चांदा से एक ही बस मिलती थी अगर वो छूट गयी तो फिर कोई और गाड़ी मिलना मुश्किल हो जाता था.
गाँधी बसों का दबदबा आज अभी कायम है उसे रोड पर. अन्य सभी सवारी वाहनों को दबा कर रखती थी. मजाल कोई और सवारी बैठा ले. ईंट से ईंट बजा देते थे गाँधी बस वाले.. ऐसा मैं नहीं बस में बैठने वाले लोगों ने मुझे बताया था.
बड़ी मुश्किल से मैं बस पकड़ने में कामयाब रहा. हांफ रहा था लेकिन ख़ुशी इस बात की थी कि चलो कम से कम बस तो हाथ में आ गई न! बस पकड़ने पर लगता था जैसे मानो कोई युद्ध जीत लिया हो.
सभी मुझे देखर हंस पड़े. मैंने मुस्कुराकर सभी का स्वागत किया.
बस एकदम बूढी हो चुकी थी. मानो 1878 से तपस्या कर रही हो. सबसे ज्यादा आवाज तो उसके इंजन की आती थी. हार्न बजता था तो ऐसे लगता था जैसे उसे जुकाम हो गया हो और आवाज खरखराते हुए बाहर आती थी. मतलब सवारियों का पैसा बस में सिर्फ तेल डलवाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. मरम्मत एक दम जीरो थी.
सड़क गड्ढो से भरी थी. हर एक कदम पर स्वागत होता था. बस में मैं सबसे पीछे बैठा था. झटका भी अव्वल दर्जे का लगता था. पकड़ के न बैठो तो ऐसा लगता था बस से बाहर ही चला जाऊंगा.
एक दादा जी थे. बेचारे बूढ़े थे या आप कह सकते थे की एकदम जर्जर हालत थी उनकी.
मुझे तो डर लगता था कि पता नहीं यात्रा के अंत तक दादा जी हमारे साथ बने रहेंगे या नहीं.
वे बड़ी कातर निगाह से हमे देख रहे थे.
हर झटके पर उनकी निगाहों में खौफ का मंजर दिखाई दे जाता था.
एक लोग खिड़की से बाहर झांकते रहते थे और चिल्लाते रहते कि 'झटकवा आवत बा' मतलब झटका आने वाला है. मैं आज भी उस यात्रा को नहीं भूल पाया हूँ.
अब तो काफी सुधार हो गया है. और दूसरी भी सवारी की गाड़ियाँ चलने लगी है!
बताना जरूर की पोस्ट कैसी लगी?
नीचे कमेंट बॉक्स में कमेंट करें!
ये घटना तब की है जब चांदा से एक ही बस मिलती थी अगर वो छूट गयी तो फिर कोई और गाड़ी मिलना मुश्किल हो जाता था.
गाँधी बसों का दबदबा आज अभी कायम है उसे रोड पर. अन्य सभी सवारी वाहनों को दबा कर रखती थी. मजाल कोई और सवारी बैठा ले. ईंट से ईंट बजा देते थे गाँधी बस वाले.. ऐसा मैं नहीं बस में बैठने वाले लोगों ने मुझे बताया था.
बड़ी मुश्किल से मैं बस पकड़ने में कामयाब रहा. हांफ रहा था लेकिन ख़ुशी इस बात की थी कि चलो कम से कम बस तो हाथ में आ गई न! बस पकड़ने पर लगता था जैसे मानो कोई युद्ध जीत लिया हो.
सभी मुझे देखर हंस पड़े. मैंने मुस्कुराकर सभी का स्वागत किया.
बस एकदम बूढी हो चुकी थी. मानो 1878 से तपस्या कर रही हो. सबसे ज्यादा आवाज तो उसके इंजन की आती थी. हार्न बजता था तो ऐसे लगता था जैसे उसे जुकाम हो गया हो और आवाज खरखराते हुए बाहर आती थी. मतलब सवारियों का पैसा बस में सिर्फ तेल डलवाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. मरम्मत एक दम जीरो थी.
सड़क गड्ढो से भरी थी. हर एक कदम पर स्वागत होता था. बस में मैं सबसे पीछे बैठा था. झटका भी अव्वल दर्जे का लगता था. पकड़ के न बैठो तो ऐसा लगता था बस से बाहर ही चला जाऊंगा.
एक दादा जी थे. बेचारे बूढ़े थे या आप कह सकते थे की एकदम जर्जर हालत थी उनकी.
मुझे तो डर लगता था कि पता नहीं यात्रा के अंत तक दादा जी हमारे साथ बने रहेंगे या नहीं.
वे बड़ी कातर निगाह से हमे देख रहे थे.
हर झटके पर उनकी निगाहों में खौफ का मंजर दिखाई दे जाता था.
एक लोग खिड़की से बाहर झांकते रहते थे और चिल्लाते रहते कि 'झटकवा आवत बा' मतलब झटका आने वाला है. मैं आज भी उस यात्रा को नहीं भूल पाया हूँ.
अब तो काफी सुधार हो गया है. और दूसरी भी सवारी की गाड़ियाँ चलने लगी है!
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