हम जवान देखने गए | hum jawan dekhne gaye

हम जवान देखने गए hum jawan dekhne gayehum jawan dekhne gaye






















उस दिन जब मुझे मेरे छोटे भाई ने कहा- "भैया चलोगे मूवी देखने?", स्कूल से पढ़ाकर बस लौटा ही था मैं। करीब एक बजकर चौतीस मिनट हो रहे थे। मैंने घड़ी देखी, और फिर मुस्कुराते हुए कहा- "चलो चलते हैं? कौन सी लगी है?"
"ज़वान", भाई ने कहा।
मंडे तो फ्राइडे काम करने के बाद दो दिन ही तो मिलते हैं उसे एन्जॉय करने को। प्लानिंग हो चुकी थी। खाना खाने के बाद हम बाइक से निकल पड़े।
बाइक पर पीछे बैठे-बैठे अतुल ने मूवी की टिकट बुक कर ली। बड़े दिनों बाद मैं अपने भाई को लेकर मूवी टाकिज में देखने जा रहा था। घर से निकलते ही बन्ह्वा(एक जगह का नाम जो की हमारे घर से बस आधे किलोमीटर ही दूर था) पर जब हम पहुंचे तो देखा कि क्रासिंग बंद हो चुकी थी। हमारे पास सही समय पर शुभम टाकिज पर पहुँचने का समय सिर्फ चालीस मिनट था। हमने जाने का रास्ता बदल लिया और दुर्गापुर वाली रोड पकड़ ली। बाइक फर्राटे मारने लगी। स्पीड यही कोई पचपन- साठ रही होगी।
रफ़्तार बढ़ती देख अतुल ने कहा- "धीरे चलो, आराम से चलो", पहुँच जायेंगे।
"ठीक" मैंने इतना कहा और बाइक कि स्पीड घटाकर पचास पर कर दी।
पीछे से मेरे दाहिने कंधे पर अपनी ठुड्डी रखकर बात करना अतुल की आदत थी। मैं बात तो करता था लेकिन जब ज्यादा ध्यान से उसकी बात सुनता तो आगे का व्यू ब्लर होने लगता था। फिर भी कोशिश करता कि ज्यादातर ध्यान सड़क पर ही रहे।
बाइक चलाते समय मेरी बाइक की स्पीड हमेशा इकॉनमी की रेंज में ही रहती है। आपने ध्यान दिया होगा बाइक में स्पीडोमीटर होता है उसमें चालीस से पचास तक कि स्पीड के ऊपर ग्रीन लाइन बनी होती है और उस पर इकॉनमी लिखा होता है। मेरी राय में अगर आपको कोई इमरजेंसी नहीं है इसे रेंज में बाइक चलानी चाहिए क्यों कि इस रेंज में बाइक ब्रेक मारने पर आसानी से रुक जाती है और एक्सीडेंट का ख़तरा भी काफ़ी हद तक कम हो जाता है।
रास्ते में पड़ने वाली खेतों, बगीचों, मैदानों की हरियाली मेरा मन मोह लेती है, लेकिन फिर अगले पल यह भी ध्यान आ जाता है कि मैं बाइक चला रहा हूँ, ज्यादा आनंद लेने से जीवन का आनंद खतरे में पड़ सकता है, न चाहते हुए भी अपना ध्यान पल भर में वापस सड़क पर लाना पड़ता है। जब बाइक की स्पीड कम रहती है तो बरबस ही सड़क के किनारे हरे मैंदान, तालाब, हरे - भरे खेत, मैदान में खेलते बच्चे और सड़क के किनारे छाँव की जिम्मेदार लिए हरे -भरे पेड़ों पर ध्यान पल भर के लिए चला ही जाता है। पेड़ों को देखने से लगता है मानों पूरे मन से झूमते हुए कह रहे हों, "चिंता न करो हम तो हैं न! अभी छाँव देने के लिए"
रास्ते में नहर पड़ती है तो उससे जुड़ी तमाम चींजें जैसे - नहर में नहाने का अपना ही मजा होता है। इसी विचार को संजीवनी देने के लिए तो कई बार तो गर्मियों में नहाते हुए बच्चे दिख ही जाते हैं। उस समय तो मन करता है कि बस बाइक यही किनारे कड़ी करे और नहर में कूद जाएँ।
और फिर बाइक पर भाई याद दिलाता है कि अभी हमें तो तैरना ही कहाँ आता है?
एक बात तो है गरीब किसान भाई इसी के पानी से अपना खेत भी सींच लेते होंगे । "हम्म.... भाई अक्सर बोल देता है।
कईयों के खेत तो बिलकुल नहर के किनारे होते हैं और उन्हें तो धान को सींचना भी नहीं पड़ता होगा। ऐसा हम दोनों अक्सर अंदाजा लगाते। ऐसी ही कई बातों पर चर्चा करते हुए हम सुल्न्ताप्नुर शहर में दाखिल हो गए। एक दुकान पर हम रुके वहां मंगल भी मिल गए। मैंने आपको बताया नहीं मंगल हमारे गाँव में ही रहता है वो मुझे कप्तान जी! कहते हैं। हैं मुझस उम्र में छोटे लेकिन ...रहता है, कहता है ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करना मुझे ठीक नहीं लग रहा।
"अबै केतना समय बा? " मंगल ने पुछा। मैंने घडी देखी और कहाँ अभी तो मूवी स्टार्ट होने दस मिनट हैं। अतुल बोले- "चलो भैया! तब तक कुछ खा ही लिया जाय"
"अब क्या खाओगे?" मैंने कहा।
"छोले भठूरे" भाई ने कहा।
फटाफट छोले- भठूरे खाकर हम सिनेमा पहुँच गए तो कि बस दो मिनट की दूरी पर था।
पहले हमने बाइक को पार्किंग में लगाया। दस रूपया लगा। घुसते ही कैंटीन भी दिख गई।हमने कहा पूरा बन्दोंबस्त किये बैठे हैं टाकिज वाले। पहली बार गए तो पूछना पड़ा कि "ऑडी वन कहाँ है?" ऊपर, जवाब मिल गया।
अन्दर घुसते ही घना अँधेरा था तभी एक व्यक्ति(जो कि टाकिज वालो का ही आदमी था) ने टॉर्च से हमारा मार्गदर्शन किया। हम तीनों को अपनी सीट मिल गई। अभी पर्दे पर ऐड आ रहा था। साउंड तो मानों हमारी सीट की नीचे ही फिट था। बीच बीच में पब्लिक हो - हो करके हीरो का उत्साह बढ़ाती थी। मजा आ गया मूवी देखकर।
क्या आपने भी "जवान" देख ली या फिर अभी नहीं कमेन्ट में जरूर बताना!

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